Thursday, July 9, 2009

दृढ कितना दिखता था जब आकाश पर था
धरती पे आया तो पतंग सा कमज़ोर निकला
डूब ही जाता अगर, तो न मैं हैरान होता
क्यों आखिर नदी के इसी छोर निकला

जहाँ छोड़ के गया था बस्तियां कभी
लौटा तो बियाबान कोई घनघोर निकला
दीवारें सारी ढह गयीं, दरवाजे मगर खड़े रहे
कुछ तो मेरे घर में तूफाँ से भी पुरजोर निकला

आवाजें जब सब सो गयीं
तो भीतर का कोई शोर निकला
रात खाली गगन को तकता रहा
शाम का धुंधलका बनके फिर भोर निकला

Sunday, February 1, 2009

आशिकी में कुछ इस कदर बेबाक़ हो गई
परवाने से पहले शम्मा खुद ख़ाक हो गई

इतने जतन से की थी मिलने की तरकीब
बरसों की साजिश बस इक इत्तेफाक हो गई

बात , मेरे दिल में थी तो संजीदा थी
बज्म में उनकी गई तो मजाक हो गई

सोचा था फिर न कभी छेडेंगे ये फ़साना पर
जब कभी जाम मिला, रात मुश्ताक हो गई